Wednesday 5 May 2021

अनजान शहर

मैं जिस शहर से आता हूँ

उससे मैं कभी नहीं मिला

उसके बीच से एक नदी बहती है

जिसे मैंने कभी नहीं देखा

वहां एक कुआं है जो कहीं नही है

एक पेड़ है जिसकी जड़ है ही नहीं

वहां के लोग सिर्फ सरकारी आंकड़े हैं

मैं जिस शहर से हूं

उस शहर का होना मैंने कभी महसूस नहीं किया

 

बाहर से देख कर मुझे आभास हुआ है कि

मेरा शहर एक पस वाला घाव है

समय की छाती से निकलता हुआ

जिसमे बहते रहते हैं बुद्ध और सम्राट अशोक

इस शहर की नाली इसकी सबसे प्राचीन धरोहर है

जिसमे रोज़ प्रवाहित होती है शहर की सामूहिक चेतना

शहर के केंद्र में विश्व का प्राचीनतम कूड़े का ढेर है

सड़े गले कोचिंगअस्पताल और दफ्तरों के उस ढेर पर

निरंतर भिनभिनाते रहते हैं शहर के सारे लोग

 

पहले मुझे लगता था मेरा शहर एक अंग्रेज़ी स्कूल है

बाद में लगा एक मॉल है या शायद एक रेलवे स्टेशन,

जहां सिर्फ आया या जाया जा सकता है

या एक विशाल मैदान है जिसमे सिर्फ नेता खेल सकते हैं

कभी ये भी लगा कि मेरा शहर एक विशाल ट्रैफिक जाम है

जिसमें 1-1 कट्ठे के निर्जीव मकान अटे हुए हैं स्थिरआदिकाल से

मुझे बहुत देर से समझ आया कि मेरा शहर कुछ नहीं है

इसीलिए वो कुछ भी हो जाने में शर्म महसूस नहीं करता

सफेद पाखंड और काली चतुराई से बुना गया शून्य है ये शहर

 

और क्योंकि मेरा शहर आज कुछ नहीं है

इसलिए मैं भी थोड़ा 'कुछ नहींहूँ आज

और ऐसे ही थोड़ा थोड़ा करके 'कुछ नहींरह जाएंगे हम

दफ्तरपरिवार, प्लास्टिक, टेडी बेयर, फ्लाईओवरहार-जीतऔर कुछ और नहीं

मैं थोड़ा सा हो जाना चाहता हूं गंगा या गौरैया या घाट का पुराना पत्थर

और मेरी अटूट उम्मीद है कि

एक दिन मैं थोड़ा सा अपना शहर हो पाऊंगा

फिर कभी हो जाऊंगा थोड़ा सा अपना देश

और अंत में मैं चाहता हूँ थोड़ा सा ब्रह्मांड हो जाना

Wednesday 5 August 2020

राम नाम सत्य है

तुमने जहाँ लिखा है 'प्यार'

वहां लिख दो 'सड़क'

फ़र्क़ नहीं पड़ता

मेरे युग का मुहावरा है

फ़र्क़ नहीं पड़ता

 

अक्सर महसूस होता है

कि बग़ल में बैठे हुए दोस्तों के चेहरे और अफ्रीका की धुंधली नदियों के छोर

एक हो गए हैं

और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ

मेरी जिह्वा पर नहीं बल्कि दांतों के बीच की जगहों में

सटी हुई है

 

मैं बहस शुरू तो करूँ

पर चीज़ें एक ऐसे दौर से गुज़र रही हैं की सामने की मेज़ को

सीधे मेज़ कहना

उसे वहां से उठाकर

अज्ञात अपराधियों के बीच रख देना है

 

-केदारनाथ सिंह

 

भगवान राम, विराट कोहली और Parle G बिस्कुट में क्या समानता है?

सवाल अटपटा जरूर हो, मुश्किल बिलकुल नहीं है. इन तीनों में यही समानता है की इन्हें भारत में खूब पसंद किया जाता है. पसंद आना आज के दौर की पहली और आखिरी कसौटी है. सड़क से लेकर कोर्ट तक सारे विचार, भाषाएं, दर्शन और दलीलें अब पसंद और नापसंद के महाविचार के भीतर ही घटते हैं. Supermarket में साबुन और भगवान दोनों मिलते हैं, अपनी पसंद के अनुसार दोनों का चुनाव करने की आपको पूरी आज़ादी है.

बस एक पाबंदी है. पसंद और नापसंद का आधार पूछना सख्त मना है. पसंद का आधार पसंद ही है. लेकिन ये सवाल पूछने का पाप अगर आपने किया तो कुछ मज़ेदार नतीजे आपको प्राप्त हो सकते हैं. Parle G और साबुन को पसंद करने का आधार बताने में लोग शायद आपको 4-5 वैज्ञानिक या अर्ध-वैज्ञानिक तथ्य बता दें. "बस अच्छा लगता है" की बारी इन 4-5 तथ्यों के बाद आएगी. विराट कोहली के मामले में शायद ये तथ्य 1-2 तक सीमित हो जाएँ. विराट कोहली को पसंद करने का कारण उनकी अच्छी बैटिंग और बैटिंग को पसंद करने का कारण क्रिकेट को पसंद करना. क्रिकेट को पसंद करने के सवाल पे शायद "बस अच्छा लगता है" की वापसी हो जाए. कुछ लोग शायद उससे भी एक दो सवाल आगे पहुँच जाएँ.

भगवान राम को पसंद करने की कहानी बहुत विकट है. आसान जवाब यह है की वो भगवान हैं, इसलिए पसंद हैं. अब भला भगवान को नापसंद करने का दुस्साहस कोई करे भी तो क्यों. लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है.

पसंद और नापसंद का आधार आसमान से हमारे चित्त में नहीं टपकता. वो ढलता या ढाला जाता है. जो लोग दुनिया को देख परख के अपनी समझ बनाते हैं, वो साथ ही साथ अपनी पसंद नापसंद के आधार को भी शिल्पकार की तरह खूब मेहनत कर ढालते हैं. उनकी पसदं नापसंद के आधार का साँचा मेहनती हांथों से तराशा गया सटीक और बारीक होता है जो दुनिया और जीवन कि गहरी समझ से निश्चित किया जाता है. वहीं जो जीवन ही निरर्थक हो, उसमे पसंद नापसंद का आधार भी निरर्थकता के बल से ही ढलता है. इन दो विपरीत जीवनों में भी पसंद नापसंद विपरीत हो ये बिल्कुल जरुरी नहीं है. गांधीजी को Singer कंपनी की सिलाई मशीन खूब पसंद थी क्यूंकि वो उस निर्जीव मशीन में सर्वोदय की ताकत देख पाते थे. किसी चोर को भी ये मशीन पसंद आ सकती है जिसमें उसे शायद कुछ पैसे नज़र आएं.

राम को पसंद करने के भी लाखों कारण होंगे. हाल ही में एक Documentary Film देख रहा था, मोती बाग़. फिल्म उत्तराखंड के पौरी गढ़वाल में रहने वाले एक किसान, विद्या दत्त के जीवन को दर्शाती है. फिल्म में एक जगह विद्या दत्त कहते हैं की तुम्हारे राम रहते होंगे केदारनाथ बद्रीनाथ में, मेरे राम तो मेरे खेत में ही रहते हैं. जाहिर है विद्या दत्त राम को पसंद करते हैं. शायद उनके राम को पसंद करने का आधार राम के जीवन की सत्यता और धर्म-प्रियता है. अपनी कर्मठता में राम का प्रतिबिम्ब देख कर उन्होंने अपने जीवन की सार्थकता बढ़ा ली होगी. बद्रीनाथ केदारनाथ और बांकी सब धाम जाने वाले लोगों में भी ऐसे कई लोग होंगे जिन्होंने राम के नाम को अपने जीवन में पिरोकर उसे कुछ अधिक अलंकृत किया होगा. ऐसे लोग हमेशा तार्किक सिद्धांतों और गहन अध्ययन कर के ही जीवन को सार्थक बनाते हों ये जरुरी नहीं है. आत्मा का परमात्मा से योग कराने के लिए तो कितने ही मार्ग प्रशस्त किये गए हैं. ज्ञान, भक्ति, कर्म और राज तो बस इस योग को साधने के कुछ मुख्य प्रकार हैं. पर इनमें से किसी भी मार्ग पर चलने के लिए अनिवार्य है साध्य, साधन और साधना की एकता. रावण की ना तो साधना में कमी थी, ना ज्ञान के साधन की उसे कोई कमी थी. लेकिन उसका साध्य अधर्म था. सो उसका नाश निश्चित था. हमारी हालत तो रावण से बहुत ख़राब है. साधन और साधना दोनों हम जुटा नहीं पाते और साध्य की तो बात ही छोड़ दीजिए.

इस लेख की शुरुआत में उठाए गए प्रश्न के बारे में एक और बात कही जा सकती है. बिस्कुट हम सब खाते हैं. वो उपयोग की वस्तु है. विराट कोहली और क्रिकेट से हमे मनोरंजन मिलता है सो उन्हें भी उपयोग या उपभोग का पात्र मानने में कोई दिक्कत नहीं है. इसके ऊपर ज्यों ही हम ऐसी चीज़ों की बात करने लगें जिनसे हमारा रोज़मर्रा का कोई नाता नहीं, तो बात बहुत जल्दी हमारे अहम की बन के समाप्त हो जाती है. इसलिए राम, भारत माता, गाय और हिंदी, सबको पसंद करने का आजकल एकमात्र अभद्र आधार बच गया है. अहम. क्यूंकि इन में से किसी से भी हमारा कोई रिश्ता बचा नहीं है सो हमने एक नया रिश्ता गढ़ लिया है, ठेकेदार का. राम को पसंद करने का आधार है ठेकेदारी बढ़ा के छाती पीटना.

इन ठेकेदारों की किस्मत भी कितनी अच्छी है. भारत जैसे प्राचीन कथा संपन्न देश में बालू की ठेकेदारी से भी आसान है सभ्यता की ठेकेदारी.

लेकिन ये ठेकेदारी कोई 2014 में शुरू हुई हो ऐसा भी नहीं है. बात बस इतनी है की अभी तक इस ठेकेदारी में नेताओं का एकाधिकार था. आधुनिकता की होर में जिस भी चीज़ का नाता समाज और व्यक्ति के अस्तित्व से टूटता गया, कबाड़ी नेता उसे उठा कर उसकी नीलामी करने लगे. जिसे भी अपना व्यक्तित्व कुछ कमजोर या जीवन उदासीन लगता हो, वो इन मुद्दों को अपने वोट से खरीदकर, समाज में अपना नाम बढ़ा सकता था. शुरुआत में तो भारत की इतनी ख़राब हालत थी की रोटी, कपडा, मकान की जद्दोजहद में ही बहुत समय बीत गया. ठेकेदारों का धंधा चला लेकिन सीमित रूप से. जीवन की मूल जरूरतें पूरी होते ही व्यक्तित्व सवारने की चिंता सामने आ जाती है सो अब जब एक पीढ़ी के आर्थिक कदम कुछ जमे हैं, तो वो और उनकी अगली पीढ़ी भी व्यक्तित्व के बाज़ार में आए है. व्यक्तित्व सवारने की चिंता को और बल मिला वैश्वीकरण के प्रभाव से जब दौड़ में पीछे छूट गए या ज्यादा आगे चले गए लोगों को Soft Power नाम की देवी के दर्शन हुए.

ठेकेदारी का ये धंधा तो बहुत पुराना है लेकिन राम मंदिर का शिलान्यास सच में ऐतिहासिक है. राम मंदिर सामाजिक स्तर पे भारतीयता की समाधी है. "सामाजिक स्तर" कहना जरुरी है क्यूंकि भारतीयता कोई विचारधारा नहीं है जो दूसरे विचार से हार के लुप्त हो जाए. दरअसल हारने जीतने का ये पूरा कार्यक्रम किसी और संस्कृति से उधार लिया गया है. इसका सबसे अच्छा नमूना तो अयोध्या खुद है. जिससे युद्ध नहीं किया जा सकता उसी का तो नाम अयोध्या है. विनोबा ने कहा है कि वेदों में युद्ध का एक नाम 'मम सत्य' भी है. मेरा सत्य. अयोध्या में मम सत्य का कोई काम नहीं क्यूंकि वहां सत्य का ही शासन है. पूर्ण सत्य. अयोध्या भारतीयता का प्रतीक है और राम मंदिर अयोध्या की भूमि पर उधार कि संस्कृति का कलंक.

लेकिन ये उधार की संस्कृति कौन सी है?

दरअसल ये संस्कृति अंग्रेज़ों की भारत पे आखिरी मेहरबानी थी. ये चीज़ों को परिभाषाओं में समेटने और उन परिभाषाओं को संगठित कर उन्हें कृत्रिम एकता में बांधने की संस्कृति है. लेकिन इन सब के ऊपर, ये संस्कृति है तुलनात्मक विकास ही. राम मंदिर को लेके होने वाली बहसों में कितनी बार सुना की जब Jerusalem और Mecca में इसाईओं और मुसलमानों का ऐतिहासिक धार्मिक स्थल है तो हिन्दुओं का कोई एक मुख्य ऐतिहासिक धार्मिक स्थल होना ही चाहिए. कल्पना की ऐसी दरिद्रता पे क्या कहा जाए. जिसमें अपनी चीज़ तब तक अच्छी नहीं लगती जबतक वो दूसरे की चीज़ की घटिया copy ना बन जाए. ऐसा तभी होता है जब व्यक्ति में कोई आत्मबोध ना बच गया हो और वो दासत्व में इतना क्षीण हो जाए की उसे बस अपने स्वामी जैसा बनने में ही मुक्ति दिखाई दे.

अंग्रेजी के शब्द 'Religion' का एक को छोड़, किसी भारतीय भाषा में कोई अनुवाद नहीं है. जिस एक भाषा में है वो भाषा उर्दू है जिसमे मजहब शब्द religion के आस पास का शब्द मालूम पड़ता है. इसका कारण यह है की उर्दू का विकास भारत में इस्लाम के आने के बाद हुआ लेकिन इसका ये मतलब बिल्कुल ना समझें की उर्दू मुसलमानों की भाषा है. उर्दू तो शायद दुनिया की पहली ऐसी भाषा है जिसका जन्म ही रूढ़िवाद के विरोध में हुआ. हिंदी में जिस शब्द को हमने religion का अनुवाद मान लिया है उसका तो मज़हब से कोई लेना देना ही नहीं है. धर्म तो भारतीय विचार का एक अद्धभुत नमूना है जो खुद में ना जाने कितनी पोथियों का दर्शन समाये है. यदि हम इसका उपयोग मज़हब के पर्याय के रूप में करते हैं तो इसका पूरा श्रेय अंग्रेज़ों को जाता है जिन्हें हर चीज़ को परिभाषित और श्रेणीबद्ध करने की अजीब आदत थी. सो जो बात उनके पल्ले नहीं पड़ी, उन्होंने उसे अपनी समझ के अनुसार निकटतम अंग्रेजी शब्द का पर्याय घोषित कर दिया. समस्या ये थी की भारतीय लोगों ने भी इन उल जलूल परिभाषाओं को ही सभ्यता का परिचायक समझा.

इसी विचार में मदहोश कुछ लोगों ने हिन्दू संस्कृति का बांकी संस्कृतियों की नक़ल में विकास करने की ठानी और कथाओं और कल्पनाओं की सुंदर दुनिया का तिरस्कार कर उसे सरकारी इतिहास के भद्दे सांचों में अटाने का प्रयास करने लगे.

भारत राष्ट्र तो बांकी राष्ट्रों की तुलना में अभी नाबालिक है। लेकिन भारतीय सभय्ता बहुत पुरानी है. सभ्यताओं की कल्पना कुछ कुछ एक विशाल महल जैसी है। ऐसा महल जो कुछ मूल विचारों के स्तंभ पे खड़ा है। जब ये वैचारिक स्तम्भ खोखले होने लगे तो मिश्र और यूनान जैसी महान सभ्यताओं का नाश हो गया। ऐसा माना जाता है की भारत की सभ्यता आज तक अटूट है। उसके स्तंभों की मरम्मत करने वाले कर सेवकों ने इन स्तंभों को मजबूत बनाए रखा है। लेकिन इन विचारों ने इतना लंबा सफर तय किया है तो इनको समझने में गलती भी हो ही सकती है. आपने वो कथा तो सुनी ही होगी जिसमे लोगों की आँखों पर पट्टी बाँध कर उन्हें हांथी के पास ले जाया जाता है. जिसके हाँथ में हांथी की पूँछ जाती है वो हांथी को रस्सी कह देता है और पैर पकड़े बैठा इंसान उसे स्तंभ कह देता है. सो इतनी पुरानी सभ्यता के विचारों के स्तंभों के विश्लेषण में भूल तो हो ही सकती है.

सभ्यता से इतर भी एक सुंदर दर्शन है भारत को एक कल्पना की तरह देखने का। कल्पना भी ऐसी जो न जाने कितनी कल्पनाओं को खुद में समेटे है। ऐसे की कोई कल्पना दूसरी से टकराती नहीं है। किसी कल्पना का दूसरे से कोई विरोध नहीं है। कल्पना महलों में कैद नहीं होती जहां ज्यादा कल्पनाएं आ जाएं तो सांस लेने में दिक्कत होने लगे। कल्पना स्तंभों पर खड़ी भी नहीं होती जो खोखले हो जाएं तो कल्पना ढरढराकर गिर पड़े। कल्पना कल्पनाओं के स्तंभ पे ही खड़ी होती है। वो गिरती तभी है जब एक समाज की सामूहिक कल्पना दम तोड़ दे और वो घटिया नीरस दोहराव के जंजाल में लुप्त हो जाए।

स्तंभ ना होने का मतलब ये बिल्कुल नहीं है की कल्पना का कोई आधार नहीं है। कल्पना का आधार जीवन है। जीवन की स्वछंदता है।

स्तंभ टूट जाने पर उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। कल्पना को कभी भी खोजा जा सकता है। किताबों में, नदियों में, गुम्बदों में, गिलहरियों में भी। आप ढूंढेंगे तो आपको भारत जरूर मिलेगा. अपने अंदर हज़ारों भारत समेटे किसी रेलवे प्लेटफॉर्म पे खड़ी है एक ट्रेन, हज़ारों मील खड़ी दूसरी ट्रेन से बिलकुल बेखबर लेकिन वो दोनों ट्रेनें कभी टकराती नहीं, बस गुज़रते हुए कहती हैं एक दूसरे से 'राम राम'.

 


Thursday 23 July 2020

अनुपम साधना

"उत्तर बिहार में हिमालय से उतरने वाली नदियों की संख्या अनगिनत है। कोई गिनती नहीं है, फिर भी कुछ लोगों ने उनकी गिनती की है। आज लोग यह मानते हैं कि यहां पर इन नदियों ने दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है। पर इनके नाम देखेंगे तो इनमें से किसी भी नदी के नाम में, विशेषण में दुख का कोई पर्यायवाची देखने को नहीं मिलेगा। लोगों ने नदियों को हमेशा की तरह देवियों के रूप में देखा है। हम उनके विशेषण दूसरी तरह से देखें तो उनमें आपको बहुत तरह-तरह के ऐसे शब्द मिलेंगे जो उस समाज और नदियों के रिश्ते को बताते हैं। कुछ नाम संस्कृत से होंगे। कुछ गुणों पर होंगे और एकाध अवगुणों पर भी हो सकते हैं।

इन नदियों के विशेषणों में सबसे अधिक संख्या है- आभूषणों की। और ये आभूषण हंसुली, अंगूठी और चंद्रहार जैसे गहनों के नाम पर हैं। हम सभी जानते हैं कि ये आभूषण गोल आकार के होते हैं- यानी यहां पर नदियां उतरते समय इधर- उधर सीधी बहने के बदले आड़ी, तिरछी, गोल आकार में क्षेत्र को बांधती हैं- गांवों को लपेटती हैं और उन गांवों का आभूषणों की तरह श्रृंगार करती हैं। उत्तर बिहार के कई गांव इन 'आभूषणों' से ऐसे सजे हुए थे कि बिना पैर धोए आप इन गांवों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। इनमें रहने वाले आपको गर्व से बताएंगे कि हमारे गांव की पवित्र धूल गांव से बाहर नहीं जा सकती, और आप अपनी (शायद अपवित्र) धूल गांव में ला नहीं सकते।"

ये अनुपम मिश्र के एक लेख का छोटा सा भाग है जो आज मैंने रवीश कुमार के प्राइम टाइम पे सुना। लेख का शीर्षक है "तैरने वाला समाज डूब रहा है". सुना तो लगा की इतनी सुंदर बात और लोग भी पढ़ें तो कितना अच्छा हो। अच्छी बातें बाढ़ का समाधान भले ही ना हों, विचारों के सूखे से ग्रसित हमारे मनों को कुछ राहत तो दे ही सकती हैं।

इतनी इतनी किताबें पढ़ लीं हमने साहित्य के नाम पे लेकिन उसमे कितनी कम बार ऐसा हुआ होगा कि किसी वाक्य ने हमे कुछ क्षण के लिए ही सही, शून्य कर दिया हो। ऐसा लगे कि पूरी ज़िंदगी का पढ़ा लिखा धरा का धरा रह जाएगा लेकिन ऐसी बात बोलने या लिखने के लिए पता नहीं कौन सी साधना करनी पड़ती होगी।

शायद समस्या विचार से ज्यादा संस्कार की है; संस्कृति की है. संस्कृति एक सम्पूर्ण व्यवस्था का सार है और संस्कृति की रूपरेखा हमारी भाषा में प्रतिबिंबित होती है. संस्कृति विहीन भाषा का सबसे अच्छा परिचायक है हिंसात्मकता. वो हिंसात्मकता जो उपभोग की भाषा में अटी पड़ी है. अब हम प्रकृति से भी उपभोगता की हैसियत से बात करने लगे हैं. उससे अपना 'अधिकार' मांगने निकल पड़ते हैं. यदि वो हमारे विकास में बाधा दे तो उसे अपना दुश्मन मानने में भी हम देरी नहीं करते. इस हिंसात्मकता में हमारे अलावा सब कुछ तुच्छ है, जिसे हम जरुरत के हिसाब से मोर-मरोड़ सकते हैं. इस संस्कृति में हम ही हम हैं. बांकी सब शून्य है. जीवित होना साझा स्थिति है. अगर हमारी नदियां ही मरणासन्न हों तो हममे कितना जीवन बचा रह गया होगा. 2019 के चुनाव के समय YouTube पे एक वीडियो  देखते हुए एक अद्धभुत दर्शन हुआ. पत्रकार ने यमुना पे नांव से कचड़ा जमा करने वाले बिहार के एक लड़के से पुछा की उसे दिल्ली शहर कैसा लगता है. उसने कहा "यहाँ के लोग काला खाते हैं, काला बोलते हैं, काला पहनते हैं. इसीलिए वो भी काले हैं, उनकी नदी भी काली है." कितना सूक्ष्म दर्शन था जीवन का उस अनपढ़ लड़के के मन में.  

ऐसा तो बिलकुल नहीं हो सकता की सूचना के इस अद्धभुत दौर में चीज़ों को जानने समझने वाले लोगों की कमी होगी. ये जरूर हो सकता है की जिन खांचों में ये ज्ञान समेटा जाता हो वो कृत्रिम हो चले हों. जो समाज 'मेरा, तुम्हारा, जरुरी, गैरजरूरी' की भाषा में खुद को झोंक दे वो नदियों को अलंकार की तरह कैसे देख सकता है. अंग्रेजी में नदियों, तालाबों को water bodies कहा जाता है. मृत लोगों के शरीर को भी body ही कहा जाता है. किसी अनजान व्यक्ति को somebody, anybody कहने का रिवाज है. सार में कहें तो आत्मीयता का अभाव दर्शाने वाला शब्द है body. शायद निर्जीवता दर्शाने वाला भी. वहीं  जिस परंपरा का जिक्र इस लेख में अनुपम जी करते हैं, उसमे अपनत्व से इतर कोई अलग body है ही नहीं. चीज़ें हमारे लिए नहीं हैं लेकिन हमारी हैं, हमारा हिस्सा हैं. इसीलिए उनके सुन्दर सुन्दर नाम हैं, उनके बारे में गीत हैं.

अफवाह उड़ी की शायद coronavirus चमगादड़ों से इंसानों में फैला है तो internet पे चमगादड़ों का सफाया कर देने तक की बात चल पड़ी. सुंदरबन में रहने वाले लोग सदियों से आदमखोर बाघों के हांथों अपनी जान गवाते रहे हैं. एक पत्रकार ने उनसे पुछा की क्या वो भी इन बाघों को मारते हैं. जवाब दे रहे इंसान ने ऐसे कान पकड़ लिए जैसे बाघ को मारना तो दूर की बात, ऐसा सोचना भी अक्षम्य पाप हो. "बाघ हमें याद दिलाता है की जंगल में हमारी सीमा तय है. जो लालच में ज्यादा अंदर चला जाता है उसी को बाघ मारता है. बाघ की भी आत्मा है. वो भी जीव है. हम भी जीव हैं. सब का जंगल पे बराबर का हक़ है"

जिस दुनिया में अपने घरवालों के अलावा सब somebody हो जाते हैं, उसी दुनियां में कहीं आज भी कोई अपने परिवार के हत्यारे बाघ को भी बस एक body मानने को तैयार नहीं है. उसी दुनिया में कोई था जिसने अपना ज्ञान किताबों के साथ मुफ्त में आने वाले खांचों में नहीं भरा था.

संस्कार के अलावा भी एक गुण है जिसका अकाल सा नज़र आता है चारों तरफ. ये गुण है विनम्रता का. मैंने सुना है की management और finance की क्लासों में ये मंत्र सिखाया जाता है की "There's nothing called free lunch." सब कुछ लेन देन के सिद्धाँत पे चलता है. शायद इसी सोच का नतीजा है meritocracy का जहर. ये विचार की हम जो कुछ भी हैं, अपनी मेहनत और लगन के बल पे हैं और इतनी मेहनत की है तो मज़ा करना तो हमारा अधिकार है. इस मज़े में किसी और का या पूरे समाज का मज़ा ख़राब हो तो हम क्या करें. लेन देन का सिद्धांत है. जिसे ज्यादा चाहिए वो मेहमत कर के ले सकता है. जिसके पास कम है वो और मेहनत करे. अब इस लेन देन के खेल में मूक प्रकृति बेचारी क्या करे. वो किसे बताए की एक नहीं, आजतक दुनिया में जितने भी लोगों ने जितनी भी बार लंच किया है, फ्री का ही तो किया है. उसे तो किसी ने बदले में कुछ नहीं दिया. ना उसने बदले में कुछ मांगना अपना अधिकार समझा. मुर्ख प्रकृति का दाखिला कोई IIM में करवाए तो बात उसके पल्ले पड़ेगी.

जो समाज ये मानने को आमादा हो की उसके ज्ञान से लेकर उसका भोजन तक सबकुछ उसी का अर्जित किया हुआ है, उसे विनम्रता का,आभार का पाठ कैसे पढ़ाया जाए. जो जीवन ही free में मिला है, उसका आभार शून्य होकर ही तो व्यक्त किया जा सकता है. ऐसी शून्यता का एहसास करने वाला समाज ही अपनी नदियों को उपयोग की वस्तु से बढ़कर, गांव का अलंकार कह सकता है. इस कथा में गांव और समाज खुद को ही निर्जीव body मान लेता है जिसमें जान नदी, पहाड़ और पेड़ फूकते हैं. वो ऐसा समाज है जहाँ कसाई भी जानवर को काटने से पहले उससे माफ़ी मांगता है.

'मेरा तुम्हारा' करने वाला समाज आज मूर्खता के चरम पे प्रकृति से भी 'मेरा तुम्हारा' की भाषा में बात करना चाहता है. प्रकृति को ये भद्दी भाषा आती ही नहीं. इसीलिए वो हमसे अब बात नहीं करती है. अनुपम मिश्र को पढ़िए. दूसरे लोगों को भी पढ़िए. क्या पता पढ़ने के क्रम में क्षण भर की शून्यता का अनुभव आपको कोई नई भाषा सिखा दे.

https://hindi.indiawaterportal.org/content/taairanae-vaalaa-samaaja-dauuba-rahaa-haai/book/541

https://mansampark.in/author/anupammishr/

Wednesday 27 May 2020

पाठक के नाम संदेश

तुम 
तुम जो ये कविता पढ़ रहे हो
तुम नहीं हो मेरे प्रिय पाठक 
मैं तुम्हारे लिए नहीं
तुम्हारे खिलाफ लिख रहा हूँ
इस उम्मीद में की 
कविता लिखने के पहले 
जो बेचैनी मेरे अंदर थी 
वो कविता पढ़ने के बाद 
तुम्हारे अंदर हो
इस उम्मीद में की
एक दिन तुम्हारी चेतना 
तुम्हारी हिंसक शांति 
के खिलाफ विद्रोह कर देगी
इस उम्मीद में
की कुछ तो बच जाएगा
सब ख़त्म होने क बाद भी
तुम्हारे अंदर
मैं ये कविता लिख रहा हूँ 

Thursday 21 May 2020

नाकामयाब समय के कामयाब लोग

नाकामयाब समय के कामयाब लोग कैसे होते हैं?
मुझे तो लगता है कि वो
घर जाते ही उतार देते हैं अपनी चमड़ी
और डाल देते हैं उसे वाशिंग मशीन में
फिर आंखों को, नाक को, कानों को
सीलबंद अलमारी में सहेज कर रख देते हैं
और अंत में रह जाते हैं सिर्फ दांत
जिनसे वो अपनी दिनभर की कामयाबी को रातभर चबाते हैं

Saturday 8 June 2019

बैंगलोर राजधानी

हिलती डुलती ट्रेन पे मैं सुन्न बैठा हूँ
इस असमंजस में की ये कैसी यात्रा है
जिसमें एक आवारा गति की दिशा में
अबोध बढ़ते जा रहे हैं हम सब
हम ऐसी अनोखी निर्बलता से लदे हुए हैं
की दुख भी उबासी में मिल गया है
लेकिन इस खालीपन में भी कुछ है
जो तोड़ रहा है  मेरे मन की चुप्पी
खिड़की के बाहर जो स्थिर साधारण दुनिया है
वो खिड़की के अंदर की कृत्रिम नीरस व्यवस्था
के विपरीत, कितनी मनमोहक है
इन छोटे जर्जर मकानों के बाहर की रोशनी
मानो अपनी क्रूर अव्यवस्थित टिमटिमाहट में
सभ्यता का बोझिल इतिहास दिखा रही हो
वहीं खिड़की के इस तरफ व्यवस्था ने
धीरे धीरे सभ्यता को शौचालय तक धकेल दिया है
और गति बढ़ती जा रही है

Thursday 31 January 2019

परतें

जब खत्म कर दूं ये कविता
तो खोलना तह बा तह
इस कविता की परतें
सबसे ऊपर मिलेगा वही पुराना विद्रोह
वही शरीर की बदलती जरूरतों को ढकने की पोषाक
थोड़ा गुरुर और थोड़ी सी हिम्मत

और नीचे जाओगे तो देखोगे
की पड़ी हैं मेरी मैली आदतें
मेरा पूर्वाग्रह और मेरी कमजोरियां
जिनको न जाने किस आकार में मोड़-मरोड़ के बना रखा है मैंने वास्तुशिल्प का अद्वितीय नमूना और रंग दिया है उन्हें बाज़ार के विचारों से ताकि आने जाने वालों को आभास न हो उनकी कुरूपता का

जब पहुंच जाओ तीसरी परत तक
तब लेना एक विराम
और नाज़ुक हांथों से उठाना मेरी बचपन में बनाई दुनिया की तस्वीर
ढूंढोगे तो मिलेगा उस तस्वीर में एक सिहरता हुआ यथार्थ जो ढका होगा न जाने कितनी जलती हुई परतों के मोम से
ये विकृतियों का मोम है जो टपकता चला गया मेरी दुनिया की तस्वीर पर
तब जब मैं बना रहा था अपनी दुनिया

शायद एक दुनिया बनाने के लिए दूसरी को खोखला करना ही नियम हो दुनिया का
पर अगर हटा पाओ ठंडी मोम तो देखना उस खोखली तस्वीर के आर-पार
और शायद तुम पाओगे की इस कविता की कोख में रखी है एक पोटली हार

हर उस बार जब मैं गिर के उठ नहीं पाया था
जब मैंने झुका लिया था सिर
जब मान लिया था मैंने खुद को बेबस
जब खो दिया था मैंने अपना विश्वास
जब नोचने लगा था मैं अपनी आत्मा
जब स्वीकार कर ली थी मैंने अपनी दयनीयता
तब                      तब                     तब
तभी शायद हुआ था सृजन इन परतों का
उस हार के पहले बीज से

और जितना हारते जाते हैं हम
उतनी ही जटिल होती जाती हैं हमारी कविताएं

अब जब भी लिखूंगा अगली कविता
तो कुछ परतें हटाऊंगा
कविता छोटी सही पर सरल बनाऊंगा।