Thursday 31 January 2019

परतें

जब खत्म कर दूं ये कविता
तो खोलना तह बा तह
इस कविता की परतें
सबसे ऊपर मिलेगा वही पुराना विद्रोह
वही शरीर की बदलती जरूरतों को ढकने की पोषाक
थोड़ा गुरुर और थोड़ी सी हिम्मत

और नीचे जाओगे तो देखोगे
की पड़ी हैं मेरी मैली आदतें
मेरा पूर्वाग्रह और मेरी कमजोरियां
जिनको न जाने किस आकार में मोड़-मरोड़ के बना रखा है मैंने वास्तुशिल्प का अद्वितीय नमूना और रंग दिया है उन्हें बाज़ार के विचारों से ताकि आने जाने वालों को आभास न हो उनकी कुरूपता का

जब पहुंच जाओ तीसरी परत तक
तब लेना एक विराम
और नाज़ुक हांथों से उठाना मेरी बचपन में बनाई दुनिया की तस्वीर
ढूंढोगे तो मिलेगा उस तस्वीर में एक सिहरता हुआ यथार्थ जो ढका होगा न जाने कितनी जलती हुई परतों के मोम से
ये विकृतियों का मोम है जो टपकता चला गया मेरी दुनिया की तस्वीर पर
तब जब मैं बना रहा था अपनी दुनिया

शायद एक दुनिया बनाने के लिए दूसरी को खोखला करना ही नियम हो दुनिया का
पर अगर हटा पाओ ठंडी मोम तो देखना उस खोखली तस्वीर के आर-पार
और शायद तुम पाओगे की इस कविता की कोख में रखी है एक पोटली हार

हर उस बार जब मैं गिर के उठ नहीं पाया था
जब मैंने झुका लिया था सिर
जब मान लिया था मैंने खुद को बेबस
जब खो दिया था मैंने अपना विश्वास
जब नोचने लगा था मैं अपनी आत्मा
जब स्वीकार कर ली थी मैंने अपनी दयनीयता
तब                      तब                     तब
तभी शायद हुआ था सृजन इन परतों का
उस हार के पहले बीज से

और जितना हारते जाते हैं हम
उतनी ही जटिल होती जाती हैं हमारी कविताएं

अब जब भी लिखूंगा अगली कविता
तो कुछ परतें हटाऊंगा
कविता छोटी सही पर सरल बनाऊंगा।