मैं जिस शहर से आता हूँ
उससे मैं कभी नहीं मिला
उसके बीच से एक नदी बहती है
जिसे मैंने कभी नहीं देखा
वहां एक कुआं है जो कहीं नही है
एक पेड़ है जिसकी जड़ है ही नहीं
वहां के लोग सिर्फ सरकारी आंकड़े हैं
मैं जिस शहर से हूं
उस शहर का होना मैंने कभी महसूस नहीं किया
बाहर से देख कर मुझे आभास हुआ है कि
मेरा शहर एक पस वाला घाव है
समय की छाती से निकलता हुआ
जिसमे बहते रहते हैं बुद्ध और सम्राट अशोक
इस शहर की नाली इसकी सबसे प्राचीन धरोहर है
जिसमे रोज़ प्रवाहित होती है शहर की सामूहिक चेतना
शहर के केंद्र में विश्व का प्राचीनतम कूड़े का ढेर है
सड़े गले कोचिंग, अस्पताल और दफ्तरों के उस ढेर पर
निरंतर भिनभिनाते रहते हैं शहर के सारे लोग
पहले मुझे लगता था मेरा शहर एक अंग्रेज़ी स्कूल है
बाद में लगा एक मॉल है या शायद एक रेलवे स्टेशन,
जहां सिर्फ आया या जाया जा सकता है
या एक विशाल मैदान है जिसमे सिर्फ नेता खेल सकते हैं
कभी ये भी लगा कि मेरा शहर एक विशाल ट्रैफिक जाम है
जिसमें 1-1 कट्ठे के निर्जीव मकान अटे हुए हैं स्थिर, आदिकाल से
मुझे बहुत देर से समझ आया कि मेरा शहर कुछ नहीं है
इसीलिए वो कुछ भी हो जाने में शर्म महसूस नहीं करता
सफेद पाखंड और काली चतुराई से बुना गया शून्य है ये शहर
और क्योंकि मेरा शहर आज कुछ नहीं है
इसलिए मैं भी थोड़ा 'कुछ नहीं' हूँ आज
और ऐसे ही थोड़ा थोड़ा करके 'कुछ नहीं' रह जाएंगे हम
दफ्तर, परिवार, प्लास्टिक, टेडी बेयर, फ्लाईओवर, हार-जीत, और कुछ और नहीं
मैं थोड़ा सा हो जाना चाहता हूं गंगा या गौरैया या घाट का पुराना पत्थर
और मेरी अटूट उम्मीद है कि
एक दिन मैं थोड़ा सा अपना शहर हो पाऊंगा
फिर कभी हो जाऊंगा थोड़ा सा अपना देश
और अंत में मैं चाहता हूँ थोड़ा सा ब्रह्मांड हो जाना
मुझे विश्वास है ये चेतना एक दिन सबके अंदर जगेगी। जैसा आज मुझे इसे पढ़ कर हुआ।
ReplyDeleteमेरा शहर आज भले कुछ भी है, पर मेरे लिए शायद वो नदी, वो कूड़े का ढेर, वो सरकारी अस्पताल और मेरे शहर में बसता मेरा घर, मेरा परिवार सब कुछ है,!!
ReplyDeleteबिहार से हो का?
ReplyDelete👍
Deleteबहुत खूब भाई !
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