"उत्तर बिहार में हिमालय से उतरने
वाली नदियों की संख्या अनगिनत है। कोई गिनती नहीं है, फिर भी कुछ लोगों ने उनकी गिनती
की है। आज लोग यह मानते हैं कि यहां पर इन नदियों ने दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है।
पर इनके नाम देखेंगे तो इनमें से किसी भी नदी के नाम में, विशेषण में दुख का कोई पर्यायवाची
देखने को नहीं मिलेगा। लोगों ने नदियों को हमेशा की तरह देवियों के रूप में देखा है।
हम उनके विशेषण दूसरी तरह से देखें तो उनमें आपको बहुत तरह-तरह के ऐसे शब्द मिलेंगे
जो उस समाज और नदियों के रिश्ते को बताते हैं। कुछ नाम संस्कृत से होंगे। कुछ गुणों
पर होंगे और एकाध अवगुणों पर भी हो सकते हैं।
इन नदियों के विशेषणों में सबसे अधिक
संख्या है- आभूषणों की। और ये आभूषण हंसुली, अंगूठी और चंद्रहार जैसे गहनों के नाम
पर हैं। हम सभी जानते हैं कि ये आभूषण गोल आकार के होते हैं- यानी यहां पर नदियां उतरते
समय इधर- उधर सीधी बहने के बदले आड़ी, तिरछी, गोल आकार में क्षेत्र को बांधती हैं-
गांवों को लपेटती हैं और उन गांवों का आभूषणों की तरह श्रृंगार करती हैं। उत्तर बिहार
के कई गांव इन 'आभूषणों' से ऐसे सजे हुए थे कि बिना पैर धोए आप इन गांवों में प्रवेश
नहीं कर सकते थे। इनमें रहने वाले आपको गर्व से बताएंगे कि हमारे गांव की पवित्र धूल
गांव से बाहर नहीं जा सकती, और आप अपनी (शायद अपवित्र) धूल गांव में ला नहीं सकते।"
ये अनुपम मिश्र के एक लेख का छोटा सा
भाग है जो आज मैंने रवीश कुमार के प्राइम टाइम पे सुना। लेख का शीर्षक है "तैरने
वाला समाज डूब रहा है". सुना तो लगा की इतनी सुंदर बात और लोग भी पढ़ें तो कितना
अच्छा हो। अच्छी बातें बाढ़ का समाधान भले ही ना हों, विचारों के सूखे से ग्रसित हमारे
मनों को कुछ राहत तो दे ही सकती हैं।
इतनी इतनी किताबें पढ़ लीं हमने साहित्य
के नाम पे लेकिन उसमे कितनी कम बार ऐसा हुआ होगा कि किसी वाक्य ने हमे कुछ क्षण के
लिए ही सही, शून्य कर दिया हो। ऐसा लगे कि पूरी ज़िंदगी का पढ़ा लिखा धरा का धरा रह जाएगा
लेकिन ऐसी बात बोलने या लिखने के लिए पता नहीं कौन सी साधना करनी पड़ती होगी।
शायद समस्या विचार से ज्यादा संस्कार
की है; संस्कृति की है. संस्कृति एक सम्पूर्ण व्यवस्था का सार है और संस्कृति की रूपरेखा
हमारी भाषा में प्रतिबिंबित होती है. संस्कृति विहीन भाषा का सबसे अच्छा परिचायक है
हिंसात्मकता. वो हिंसात्मकता जो उपभोग की भाषा में अटी पड़ी है. अब हम प्रकृति से भी
उपभोगता की हैसियत से बात करने लगे हैं. उससे अपना 'अधिकार' मांगने निकल पड़ते हैं.
यदि वो हमारे विकास में बाधा दे तो उसे अपना दुश्मन मानने में भी हम देरी नहीं करते.
इस हिंसात्मकता में हमारे अलावा सब कुछ तुच्छ है, जिसे हम जरुरत के हिसाब से मोर-मरोड़
सकते हैं. इस संस्कृति में हम ही हम हैं. बांकी सब शून्य है. जीवित होना साझा स्थिति है. अगर हमारी नदियां ही मरणासन्न हों तो हममे कितना जीवन बचा रह गया होगा. 2019 के चुनाव के समय YouTube पे एक वीडियो देखते हुए एक अद्धभुत दर्शन हुआ. पत्रकार ने यमुना पे नांव से कचड़ा जमा करने वाले बिहार के एक लड़के से पुछा की उसे दिल्ली शहर कैसा लगता है. उसने कहा "यहाँ के लोग काला खाते हैं, काला बोलते हैं, काला पहनते हैं. इसीलिए वो भी काले हैं, उनकी नदी भी काली है." कितना सूक्ष्म दर्शन था जीवन का उस अनपढ़ लड़के के मन में.
ऐसा तो बिलकुल नहीं हो सकता की सूचना के इस अद्धभुत दौर में चीज़ों को जानने समझने वाले लोगों की कमी होगी. ये जरूर हो सकता
है की जिन खांचों में ये ज्ञान समेटा जाता हो वो कृत्रिम हो चले हों. जो समाज 'मेरा,
तुम्हारा, जरुरी, गैरजरूरी' की भाषा में खुद को झोंक दे वो नदियों को अलंकार की तरह
कैसे देख सकता है. अंग्रेजी में नदियों, तालाबों को water bodies कहा जाता है. मृत
लोगों के शरीर को भी body ही कहा जाता है. किसी अनजान व्यक्ति को somebody,
anybody कहने का रिवाज है. सार में कहें तो आत्मीयता का अभाव दर्शाने वाला शब्द है
body. शायद निर्जीवता दर्शाने वाला भी. वहीं जिस परंपरा का जिक्र इस लेख में अनुपम
जी करते हैं, उसमे अपनत्व से इतर कोई अलग body है ही नहीं. चीज़ें हमारे लिए नहीं हैं
लेकिन हमारी हैं, हमारा हिस्सा हैं. इसीलिए उनके सुन्दर सुन्दर नाम हैं, उनके बारे
में गीत हैं.
अफवाह उड़ी की शायद coronavirus चमगादड़ों
से इंसानों में फैला है तो internet पे चमगादड़ों का सफाया कर देने तक की बात चल पड़ी.
सुंदरबन में रहने वाले लोग सदियों से आदमखोर बाघों के हांथों अपनी जान गवाते रहे हैं.
एक पत्रकार ने उनसे पुछा की क्या वो भी इन बाघों को मारते हैं. जवाब दे रहे इंसान ने
ऐसे कान पकड़ लिए जैसे बाघ को मारना तो दूर की बात, ऐसा सोचना भी अक्षम्य पाप हो.
"बाघ हमें याद दिलाता है की जंगल में हमारी सीमा तय है. जो लालच में ज्यादा अंदर
चला जाता है उसी को बाघ मारता है. बाघ की भी आत्मा है. वो भी जीव है. हम भी जीव हैं.
सब का जंगल पे बराबर का हक़ है"
जिस दुनिया में अपने घरवालों के अलावा
सब somebody हो जाते हैं, उसी दुनियां में कहीं आज भी कोई अपने परिवार के हत्यारे बाघ
को भी बस एक body मानने को तैयार नहीं है. उसी दुनिया में कोई था जिसने अपना ज्ञान
किताबों के साथ मुफ्त में आने वाले खांचों में नहीं भरा था.
संस्कार के अलावा भी एक गुण है जिसका
अकाल सा नज़र आता है चारों तरफ. ये गुण है विनम्रता का. मैंने सुना है की
management और finance की क्लासों में ये मंत्र सिखाया जाता है की "There's
nothing called free lunch." सब कुछ लेन देन के सिद्धाँत पे चलता है. शायद इसी
सोच का नतीजा है meritocracy का जहर. ये विचार की हम जो कुछ भी हैं, अपनी मेहनत और
लगन के बल पे हैं और इतनी मेहनत की है तो मज़ा करना तो हमारा अधिकार है. इस मज़े में
किसी और का या पूरे समाज का मज़ा ख़राब हो तो हम क्या करें. लेन देन का सिद्धांत है.
जिसे ज्यादा चाहिए वो मेहमत कर के ले सकता है. जिसके पास कम है वो और मेहनत करे. अब
इस लेन देन के खेल में मूक प्रकृति बेचारी क्या करे. वो किसे बताए की एक नहीं, आजतक
दुनिया में जितने भी लोगों ने जितनी भी बार लंच किया है, फ्री का ही तो किया है. उसे
तो किसी ने बदले में कुछ नहीं दिया. ना उसने बदले में कुछ मांगना अपना अधिकार समझा.
मुर्ख प्रकृति का दाखिला कोई IIM में करवाए तो बात उसके पल्ले पड़ेगी.
जो समाज ये मानने को आमादा हो की उसके
ज्ञान से लेकर उसका भोजन तक सबकुछ उसी का अर्जित किया हुआ है, उसे विनम्रता का,आभार
का पाठ कैसे पढ़ाया जाए. जो जीवन ही free में मिला है, उसका आभार शून्य होकर ही तो व्यक्त
किया जा सकता है. ऐसी शून्यता का एहसास करने वाला समाज ही अपनी नदियों को उपयोग की
वस्तु से बढ़कर, गांव का अलंकार कह सकता है. इस कथा में गांव और समाज खुद को ही निर्जीव
body मान लेता है जिसमें जान नदी, पहाड़ और पेड़ फूकते हैं. वो ऐसा समाज है जहाँ कसाई
भी जानवर को काटने से पहले उससे माफ़ी मांगता है.
'मेरा तुम्हारा' करने वाला समाज आज मूर्खता के चरम पे प्रकृति से भी 'मेरा तुम्हारा' की भाषा में बात करना चाहता है. प्रकृति को ये भद्दी भाषा आती ही नहीं. इसीलिए वो हमसे अब बात नहीं करती है. अनुपम मिश्र को पढ़िए. दूसरे लोगों को भी पढ़िए. क्या पता पढ़ने के क्रम में क्षण भर की शून्यता का अनुभव आपको कोई नई भाषा सिखा दे.
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